Wednesday 9 January 2019

गलती

नीरज नीर की कविता गलती पर एक नज़र 



गलती 

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अगर जीवन में मिलते मौके 
रिहर्सल के 
होते रिटेक। 
मैं फिर से दुहराता
वही गलती,
तुमसे प्रेम की।
कुछ गलतियाँ होती हैं,
की जाने के लिए
बार बार।
जीवन सिर्फ जीत का नाम नहीं।
जो हार से अलग है,
वही जीत है।
हार भी जीवन है।
घरौंदे बनाने में खुशी है।
उसके चिरस्थायी होने में नहीं।


अंधेरे और प्रकाश के बीच
कोई सीमा रेखा नहीं होती है।
या तो अंधेरा होता है या प्रकाश।
पर अंधेरे में प्रकाश की संभावना
कभी भी ख़त्म नहीं होती।
प्रकाश की एक बूंद भी
ख़त्म कर देती है
अंधेरे का होना।
मैं तुमसे प्रेम करूँगा
एक बार फिर से
अंधेरे से प्रकाश की ओर
जाते हुये ।
इस यात्रा में कोई पड़ाव नहीं होगा।
- नीरज नीर


पिछले कुछ समय में पढ़ी गई कुछ कविताओं में एक यह कविता उन कविताओं में से रही जो बार बार कहती रही कि बात करो .. यूँ तो और भी कई कवितायें पढ़ीं उनपर भी अपनी बात कहूँगा, पर यह हाल ही में पढ़ी गई, अतः यहीं से शुरुआत जानिये | बाकी कविताओं पर मैं अपनी बात भी यहीं रखूँगा |

रश्मि प्रकाशन नीरज जी की कविताओं का संग्रह जंगल में पागल हाथी और ढोल नाम से लेकर आया है, अभी पढ़ ही रहा हूँ , यह बात इसलिये 
कह पा रहा हूँ  कि नीरज की कविताओं में क्रमिक कार्मिक विकास दिखाई पड़ता है | यदि यह विकास यूँ ही आगे भी बढ़ता रहा तो निसन्देह नीरज एक अच्छे हस्ताक्षर हो सकते हैं | क्योकि मेरा मानना है कविता संग्रह पढने के बाद कवि की ताज़ा रचनाओं को पढ़ा जाये तो आप कविकर्म में बदलाव जरूर पायेंगे | 

अब बात इस कविता की ..


यह कविता स्वयं अपने पाठक को रोककर पूछती है कि प्यारे कोई गलती किये हो या नहीं, अगर नहीं तो भाई तुम्हारी राह भले ही दूसरी है, पर तुम्हें लौटना तो पड़ेगा ही मेरे पास एक बार |

गलती, यह शीर्षक मुझे बड़ा आकर्षक, अपीलिंग लगा, पहली ही नज़र में भा गया, और चौथाई सार सा कहता हुआ लगा | आगे बढ़ा तो एक बार भी यूँ नहीं लगा कि जीत-हार, हार-जीत जैसी लकीर-फकीर  वाली बात कह रही हो, एक बार भी यह नहीं लगा कि इससे ज्यादा तो Positivity का ज्ञान इन्टरनेट पर मिल जाता है | 

अगर जीवन में मिलते मौके 
रिहर्सल के 
होते रिटेक। 
मैं फिर से दुहराता
वही गलती,
तुमसे प्रेम की।
कुछ गलतियाँ होती हैं,
की जाने के लिए
बार बार।
जीवन सिर्फ जीत का नाम नहीं।
जो हार से अलग है,
वही जीत है।
हार भी जीवन है।
घरौंदे बनाने में खुशी है।
उसके चिरस्थायी होने में नहीं।
बड़ी सहजता से अपनी बात कहते हुये सुघड़ हो उठती है यह कविता, कितनी सरलता से बात करती है कि अगर जीवन में मिलते मौके ... रिहर्सल के ... होते रिटेक  और जरा से आगे बढ़ते ही  जीवन सिर्फ जीत का नाम नहीं कह कर सुघड़ हो जाती है,और हार भी जीवन है कितनी बढ़िया बात कही गई है , असल में देखा जाये तो हार और जीत दोनों जीवन के समान पहलू हैं, यदि हार न हो तो जीत का कोई महत्व नहीं रह जाता । अतः जीत को सफलता का मानक नहीं माना जा सकता । और मजे की बात कि हार का स्वाद प्रति पल हम चखते हैं पर उसे भूल जाते हैं पर इसे नकारा नहीं जा सकता कि असल में हार साथै-स्थाई है जो कि जीत के सापेक्ष चिर युवा है । जीवन में हर हार सीख दे चिरायु हो जाती है । इतिहास गवाह है कि पांडवों की हार के कारण ही गीता जैसे ग्रन्थ का जन्म हुआ ।

घरौंदे के चिरस्थायी होने में खुशी नहीं होती बहुत बड़ी बात है मुझे  माता विदूला की बात मुहूर्तं ज्वलितं श्रेयः न तु धूमायितं चिरं ( अर्थात एक क्षण के लिये अपने पराक्रम की ज्योति प्रगट करना सौ वर्ष तक पड़े रहने से बेहतर है) याद आ जाती है ।

इस कविता में चिरस्थायी शब्द का प्रयोग बहुत ही जबरदस्त है । असल में मुझे इस कविता का सार भी केवल यही जान पड़ता है |यूँ तो चिरस्थायी शब्द को अनेक अर्थो में देखा जा सकता है पर यहाँ चिर (सदा) + स्थायी (अगतिशील) रूप में देखा जाना मुझे अर्थवान लगता है।


जीवन निरन्तरता का नाम है बाकी इसमें विशेषण कुछ भी जोड़े जा सकते हैं, कैसे जीना है क्यों जीना है आदि । इन बातों में उलझकर हम भूल बैठते हैं कि जीवन एक क्रिया है जिसे होना ही है । ज्यों नदी बहती है, सतत, निरन्तर, अविरल बाकी जो कुछ भी हो रहा है, मिल रहा है उसकी धारा में असल में अवरोध हैं उसकी अविरलता में, जो कि उसके प्राकृतिक गुण के विपरीत हैं । असल में सयास और प्रयास को भांपने की क्रिया जीवन है । जो सयास की ओर बढ़ा वह जी उठता है । 

जीवन गति है, ठहराव नहीं । 


घरौंदा ठहराव का प्रतीक है, गतिमान होने का नहीं, इसलिये कवि कहता है कि घरौंदे बनाने में खुशी है, निर्माण वह क्रिया है जिसमें गति अंतर्निहित है, जो जीवन के समत्व है । इसलिये घरौंदे को बनाने में खुशी है, बन जाने के बाद नहीं क्योंकि बन जाने के बाद ठहराव है, गति रुक गयी, और रुकना जीवन नहीं है । इसलिये कवि को चिरस्थायी होने में खुशी नहीं मिलती ।


कविता आगे बढती है तो कहती है कि 

अंधेरे और प्रकाश के बीच
कोई सीमा रेखा नहीं होती है।
या तो अंधेरा होता है या प्रकाश।
पर अंधेरे में प्रकाश की संभावना
कभी भी ख़त्म नहीं होती।
प्रकाश की एक बूंद भी
ख़त्म कर देती है
अंधेरे का होना।
मैं तुमसे प्रेम करूँगा
एक बार फिर से
अंधेरे से प्रकाश की ओर
जाते हुये ।
इस यात्रा में कोई पड़ाव नहीं होगा।
अंधेरे और प्रकाश के बीच यहाँ से इस कविता का एक नया आयाम खुलता है जो अंतिम दो पंक्तियों एक बार फिर से और इस यात्रा में कोई पड़ाव नहीं होगा तक पहुचंने पर मेरी समझ में आता है ।
उपनिषदों ने कहते हैं  तमसो मा ज्योतिर्गमय  अर्थात अंधेरे से प्रकाश की ओर ले जाओ, यहाँ भी निरन्तरता है, प्रवाह है ठहराव नहीं | वे यह भी कह सकते थे कि अंधेरे से उठा कर प्रकाश में रख दो । रख देने में ठहराव का भाव होता, ले जाने में गति रहती है इसीलिये ज्योतिर्गमय कहा ज्योतिर्वस्थित नहीं । लगातार ज्ञान की ओर बढ़ें, लगातार अज्ञानता दूर करें । 

ठीक इसी प्रकार प्रेम की यात्रा भी लगातार होती है, यदि ठहराव आ गया तो प्रेम की साँस रुक जायेगी, और ऐसा हुआ तो प्रेम कहाँ रहा ।मुझे नहीं मालूम कि लैला-मजनूँ अब कहाँ है पर यह जानता हूँ और विश्वास है अभी भी प्रेम में होंगे । और अगर प्रेम यात्रा में कभी कोई पड़ाव होता तो हम आज राधा कृष्ण, मीरा कृष्ण, राम सीता आदि को विस्मृत कर चुके होते और किसी भंसाली के आने पर ही बाजीराव मस्तानी की भाँति याद कर पाते ।


वैसे भी यात्रा शब्द चलायमान है गति निहित है, पड़ाव थमना है, स्थिरता का द्योतक है । कवि चाहता है कि उसकी प्रेम की यात्रा रुके नहीं, वह अथम प्रेममग्न रहना चाहता है इसलिये कौल करता है सुनिश्चित करता है कि इस यात्रा में कोई पड़ाव नहीं होगा ।

अंधेरे में प्रकाश की संभावना कभी भी खत्म नहीं होती यह पंक्ति अपनेआप में अनेकों कविताओं को लिये हुये है । यह पंक्ति एक सार्थक सूत्र है, सभी जीवटों के लिये । एक मन्त्र है सभी तपस्वियों के लिये । 


असल में अंधेरा और प्रकाश दोनों को अलग अलग देखना दोष है दोनों पूरक नहीं संयोजक है, साथ ही रहते हैं सदैव। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं, जिस प्रकार अंधेरे में प्रकाश की सम्भावना खत्म नहीं होती उसी प्रकार प्रकाश में अंधेरे की संभावना भी मिटती नहीं कभी । यह प्रकाश की विशेषता है कि उसकी एक बूँद अंधेरे की छंटनी कर देती है, और अंधेरे के लाख प्रयास होने पर ही प्रभावित हो पाती है । दिन और रात इसका जीता जागता उदाहरण हैं । बस यही है कि रात को छंटने के लिये धरती का एक नियत समय तक घूर्णन आवश्यक है

फिर यूँ भी कि प्रकाश में गति होती है और अंधेरा स्थिर होता है कवि कह उठता है कि मैं तुमसे प्रेम करूँगा एक बार फिर से अंधेरे से प्रकाश की ओर जाते हुये


मुझे 
इसके सिवा कोई और कारण न दिखाई दिया जो रुक कर न पढ़ता |


नीरज 
जी को बधाई एक अच्छी कविता गढ़ने के लिये |